Sunday, October 23, 2011

दुविधा (लुघकथा)

- डा. अनिल यादव

उसने अपने पापा को फोन किया। पूछा, ‘पापा एक बात करनी है। मेरे क्लीनिक में एक महिला आयी है। तीन बच्चों की माँ है। वह प्रेगनेंट है। छः महीने बीत चुके हैं। उसके साथ एक आदमी है लेकिन उसका पति नहीं है। विस्तार से पूछने पर गुस्सा जा रही है। अबॉर्शन करवाना चाहती है।’
‘लेकिन यह तो ख़तरनाक है। तुम उसे समझा दो कि मात्र तीन महीने की ही तो बात है। जैसे इतने दिन वैसे तीन महीने और।’
‘उसे मैंने समझाया लेकिन वो मान ही नहीं रही है। कहती है पाँच हजार ले लो और गिरा दो। कुछ और चाहिए तो बोलो। साथ वाला आदमी भी काफी आरजू-मिन्नतें कर रहा है।’
डॉ.सुनीता ने अपने पापा को विस्तार से बताते हुए आगे कहा, ‘पापा, मेरी समझ में नहीं आ रहा क्या करुँ।’
‘एक बात बताओ, ख़तरा कितना है?’
‘ख़तरा तो बहुत है।’
‘अच्छा उस महिला का दृष्टिकोण कैसा लगता है?’
‘रफ़ है। झुँझला कर बातें कर रही है जैसे मैं उसकी कर्जदार होऊँ।’
‘छोड़ दो, जाने दो, कह दो कि यह तुमसे नहीं होगा। या तुम जरा अपने पति से भी पूछ लो।’
‘मैंने पूछा था। उन्होंने कहा कि जैसा उचित समझो कर लो।’
‘तो ठीक है, मना कर दो। दुविधाग्रस्त मत होओ। पैसे की चिंता मत किया करो। इस कार्य से काफी बदनामी होती है।’
‘लेकिन पापा! मेरी दुविधा या धर्मसंकट कहीं और है। मैं सोचती हूँ कि इसने गलत तो किया ही है लेकिन लोकलाज के डर से यदि इसने कुछ कर लिया तो इसके तीनों बच्चों का क्या होगा? परिवार समाप्त नहीं हो जायेगा?’ फोन पर उसकी आवाज में कंपन होने लगा।
‘बेटा! इतना जज़्बाती ना बनो। ज़रा अपनी भी सोचो। यदि तुमने सफलतापूर्वक अबॉर्ट करा दिया तो सब कहेंगे कि इस तरह का गलत काम तुमने केवल चंद पैसे के लिए किया है और यदि उसके साथ कुछ हो गया तो उसके साथ के हीं लोग कहेंगे कि यदि ख़तरा था तो पहले हाथ हीं नहीं लगाना चाहिए था। बेटा! इस ख़तरनाक काम में न पड़ो और सीधे मना कर दो।’
शायद उसे पापा की बात समझ में आ गयी थी। उसने मोबाईल बंद किया लेकिन उसकी चाल में अभी भी दुविधा थी और उसकी आँखों के सामने तीन-तीन बच्चों की तस्वीर।

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