Tuesday, October 11, 2011

साईकिल (लघुकथा)

- डॉ.अनिल यादव
9415201001

महानन्दा एक्सप्रेस के आने की सूचना प्रसारित की जा रही थी।वीरेंद्र ने प्लेटफॉर्म पर निगाहें दौड़ायी पर कोई नज़र नहीं आया। बड़ा संतुष्ट हुआ किकम से कम आज वह अकले ही इस गाड़ी को देख लेगा। थोड़ी देर में ही इंजन की हेडलाइट दिखाईपड़ी। वह हाथों को सहला रहा था। परन्तु, पीछे से आवाज़ आयी, ‘टिकट कलेक्टर साहब ई गाड़ी पटना कब पहुँचेगी।
’‘छूटने के साढ़े तीन घंटे बाद’ बड़े रूखे स्वर में उसने जवाब दिया। फिर गाड़ी के बारे में सोचनेलगा- ‘पहुँचते हीं थ्री टीयरमें घुसुंगा। कई पैसेंजर बिना टिकट के बच्चों को लेकर चलते हैं। आज अच्छी आमदनी होगी।’
गाड़ी के रुकते हीं योजनानुसार थ्री टीयर में घुसा-
‘टिकट..... टिकट.....। तुम भी दिखाना.....। कितना लगेज लेकर चलतेहो.....। सारा पंजाब उठाकर ला रहे हो क्या.....। ये क्या..... केवल तीन टिकट,तुम्हारे साथ तो तीन बच्चे भी हैं।’
‘बाबूजी, छोटा बच्चा है ना इसलिए टिकस नहीं लिया।’
‘नहीं.....नहीं..... तुम्हें जुर्माना तो देना ही पड़ेगा।’
‘बाबूजी, रास्ते में टीटी बाबू और सिपाही जी बोले थे कि एक बार पईसा हमकोदे दो, अउर फिर पईसा नहींलगेगा। दू सौ दस रुपैया ले लिहिन बाबूजी’
‘अरे छोड़ो, इन फालतू बातों को। देता है या बुलाऊँ दीवान जी को। अरे भई दीवानजी......।’
‘नहीं..... बाबूजी, रहम करिये। सब पईसा खतम हो गया है,जो बचा है उसमें परबतिया की विदाई भी करना है बाबूजी।’
‘स्साला देता है पाँच सौ बहत्तर रुपया कि बताएँ’
‘अरे, काहे मुँह लगता है, दो ही सौ दे दे’ दीवान जी ने कड़क कर कहा।
उसने गठरी में हाथ डालकर, बच्चों की तरफ देखते हुए पैसा निकाला।
टीसी बाबू की तरफ कातर निगाहों से देखा। समझने का प्रयास कररहा था कि कहीं टीसी बाबू पसीज गये हों।
‘ला देर क्या करता है’
पैसे लेकर टीसी बाबू दीवान जी के साथ उतर गये।
पचास रुपया दीवान जी को दिया और प्रसन्न मन से यह सोचकर दूसरी बोगी की ओर बढ़ गये कि बेबी कई दिनों से साईकिल खरीदने को कह रही थी। अब तो तीन पहिए वाली कल खरीद ही दूँगा।

गुस्सा गधे को आ गया

-पंडित सुरेश नीरव

कौन है जो फस्ल सारी इस चमन की खा गया
बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया
प्यार कहते हैं किसे है कौन से जादू का नाम
आंख करती है इशारे दिल का हो जाता है काम
बारहवें बच्चे से अपनी तेरहवीं करवा गया
बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

वो सुखी हैं सेंकते जो रोटियों को लाश पर
अब तो हैं जंगल के सारे जानवर उपवास पर
क्योंकि एक मंत्री यहां पशुओं का चारा खा गया
बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

जबसे बस्ती में हमारे एक थाना है खुला
घूमता हर जेबकतरा दूध का होकर धुला
चोर थानेदार को आईना दिखला गया
बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

गुस्ल करवाने को कांधे पर लिए जाते हैं लोग
ऐसे बूढ़े शेख को भी पांचवी शादी का योग
जाते-जाते एक अंधा मौलवी बतला गया
बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

कह उठा खरगोश से कछुआ कि थोड़ा तेज़ भाग
जिन्न आरक्षण का टपका जिस घड़ी लेकर चिराग
शील्ड कछुए को मिली खरगोश चक्कर खा गया
बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

चांद पूनम का मुझे कल घर के पिछवाड़े मिला
मन के गुलदस्ते में मेरे फूल गूलर का खिला
ख्वाब टूटा जिस घड़ी दिन में अंधेरा छा गया
बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया

कौन है जो फस्ल सारी इस चमन की खा गया
बात उल्लू ने कही गुस्सा गधे को आ गया।

तमन्ना थी आवाज के जादूगर से

-अरविन्द योगी

बड़ी हसरत थी दिल में
कुछ कहने की कुछ सुनने की
बड़ी तमन्ना थी दिल में
आवाज के जादूगर से मिलने की
जो हर पल एक कली सा
जीवन के आँगन में
गजलों के खुशबू फैलता था
मन के कण कण महकाता था
जग को जिसने जीता था
जग भी उससे जीता था
आज जग है पर वो जीत नहीं
आवाज में ख़ामोशी पर गीत नहीं
उसकी ख़ामोशी भी एक संगीत थी
प्यार की प्यारी प्रीत थी
वो मुस्कराता था बचपन में
हंसाता था यौवन में हर मन में
उसकी जादूगरी कहें या दरियादिली
आज वृद्ध हुआ जब दूर हुआ
हर दिल की अब दिल से दुआ
गर तू कहीं है खुदा या तेरी खुदाई
आज तमन्ना फिर मचल आई
तू कर कुछ ऐसी खुदाई
जग को जीतने आये फिर वो सौदाई
हर धड़कन से है आवाज आई
जगजीत की हर प्रीत याद आई
महफ़िल की रीत मुरझाई
कागज की कश्ती और बारिश का पानी
हमेशा सावन में याद आएगा
जब भी उस जादूगर का गीत कोई गुनगुनाएगा
वो हर धड़कन बन गजल गायेगा
जगजीत तुझे तेरा जग
कभी ना भूल पायेगा
तू हर युग में सबको याद आएगा
पर एक हसरत बन एक याद बन
ये योगी मन तुझसे कहाँ मिल पयेगा
कौन फिर तुझसा मुस्कराएगा
जब जग में कोई तमन्ना जीत जायेगा
हर तमन्ना तेरे गीत गायेगा
आवाज का जादूगर तू हमेशा याद आएगा
भला कौन है जो तुझे भूल पायेगा
जगजीत तू बहुत याद आएगा !

यह कविता क्यों ? आवाज के जादूगर आदरणीय जगजीत सिंह जी हमेशा हर धकन में रहेंगे धडकते रहेंगे महकते रहेंगे और मन को विश्वास है वह हमारे बीच फिर आयंगे जब दिल से हर को उन्हें बुलाएगा ! समर्पित आदरणीय जगजीत सिंह जी की याद में

कविता कलम सॆ नहीं कवि कॆ अंतःकरण सॆ निकलती है

- कवि-राजबुँदॆली

कभी त्याग बलिदान सॆ कभी जीवन-मरण सॆ निकलती है !
कविता कलम सॆ नहीं कवि कॆ अंतःकरण सॆ निकलती है !!
कभी बिंदु मॆं समॆट लॆती चराचर संसार यह,
नयन बिन दॆख लॆती है क्षितिज कॆ पार यह,
हवाऒं का रूप धर लिपट जाती वृक्ष कॆ गलॆ,
कभी बूँद बन नीर की पुकारती रसातल तलॆ,
कभी शबनम का रूप धर, यॆ पर्यावरण सॆ निकलती है !!१!!
कविता कलम सॆ नहीं.................................................

शहरॊं का शॊर-गुल कभी दूर दॆश गाँव बन,
करुणा का सागर कभी आँचल की छाँव बन,
हिम-शिखर चॊटी कभी सरिता की धार बन,
संघर्ष की पतवार बन झाँसी की तलवार बन,
शशि कॆ सौम्य सॆ कभी,कभी रवि-किरण सॆ निकलती है !!२!!
कविता कलम सॆ नहीं...................................................

सूर तुलसी कबीर बनी द्रॊपदी का चीर बनी,
सीरी-फ़रहाद बनी कभी रांझा और हीर बनी,
जुल्म की जंजीर बनी सरहद की लकीर बनी,
यॆ प्याला बन ज़हर का मीरा की तस्वीर बनी,
एकलव्य कॆ अँगूठॆ सॆ कभी अँगद कॆ चरण सॆ निकलती है !!३!!
कविता कलम सॆ नहीं..............................................

आदि बनी अंत बनी निराला और पंत बनी,
जॊग बनी भॊग बनी दुर्वाशा- दुश्यन्त बनी,
गीत गज़ल छंद बनी बिषमता का द्वंद बनी,
ऋतु का श्रँगार कभी मीन मॊर मकरंद बनी,
कामधॆनु कल्पतरु और कल्पना कॆ ब्याकरण सॆ निकलती है !!४!!
कविता कलम सॆ नहीं.................................................

हृदय मॆं हिलॊर लॆती नव सृजन चॆतना कभी,
शब्द-शब्द मॆं हॊती है प्रसव जैसी वॆदना कभी,
भूल जाता सर्वश जब लक्ष्य का बॆधना कभी,
कविता का रूप धर लॆती हॄदय -संवॆदना तभी,
दधीचि की अस्थियॊं सॆ कवच और करण सॆ निकलती है !!५!!
कविता कलम सॆ नहीं.............................................

खाली मकान तेरे लिए, उम्र भर यू मैने रहने दिया

-अपर्णा खरे

ना किसी को पनाह दी
ना किसी को बसने दिया
तेरे जाने के बाद मैने
मकान को खाली रहने दिया

तू था तो घर मेरा गुलज़ार था
हम थे, तुम थे,
और हमारा प्यार था
प्यार को मैने सदा यू ही
बस बहने दिया.....
तेरे जाने के बाद मैने
मकान को खाली रहने दिया

तेरा समर्पण तेरा प्यार
आज भी मेरी आँखे नम कर जाता हैं
कभी कभी तू आकर सामने मेरी
सांसो को रोक जाता हैं
मज़बूरियो ने साथ यू
हमे रहने ना दिया
फिर भी दिल के ज़ज्बात को
मैने नही मरने दिया
उम्र भर.... दिल का मकान मैने
खाली रहने दिया......

आ भी बस एक बार
देख ले दिल का दरबार
अब भी सजा हैं तेरे लिए
चाँदनी रातों मे,
हाथों को लिए हाथों मे
हम यू ही बैठे रहे
साथ जिए साथ मरे
बस यू बढ़ते रहे
मुझे सब याद हैं,
जो तूने मुझको दिया
खाली मकान तेरे लिए
उम्र भर यू मैने रहने दिया

चंचल मन

-राजीव जयसवाल

एक दिवस , अमृत वाणी
एक दिवस, प्रेम कहानी
एक दिवस,ज्ञान योग
एक दिवस,प्रणय संयोग |
 
एक दिवस , क्रोध की ज्वाला
एक दिवस, शांत मधुशाला
एक दिवस,कर्म और धर्म
एक दिवस, बेहया बेशर्म |

एक दिवस , प्रभु की अनुकंपा
एक दिवस, ईश्वर में शंका
एक दिवस,सब धर्म समान
एक दिवस, स्वधर्म अभिमान |

एक दिवस , तलवार की धार
एक दिवस, कायर नर नार
एक दिवस, राधा और श्याम
एक दिवस, राही अंजान |

मानव मन के कितने रूप
एक  दिवस छाया, एक दिवस धूप
मन में देव, मन ही में भूत
एक दिवस राम, एक दिवस यमदूत |

ਹੇ ਰਾਮ !

-ਅਮਰਦੀਪ ਸਿੰਘ ਗਿੱਲ

ਹੇ ਰਾਮ !
ਮੈਂ ਕਦ ਇਨਕਾਰੀ ਹਾਂ
ਕਿ ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਸੱਚਾ ਨਹੀਂ ਹੈ
...ਆਦਿ-ਕਾਲ ਤੋਂ ਸੱਚਾ ਹੈ ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਤਾਂ ,
ਉਸ ਦਿਨ ਤੋਂ
ਜਦ ਮੈਂ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ
ਆਪਣੇ ਅੱਖੀਂ ਵੇਖੀ ਸੀ ਰਾਮ -ਲੀਲਾ ,
ਬਸ ਉਸੇ ਦਿਨ ਤੋਂ ਹੀ
ਮੇਰੇ ਲਈ ਪੂਜਣਯੋਗ ਬਣ ਗਿਆ ਸੀ
ਤੇਰਾ ਧਨੁੱਖ-ਤੋੜ ਸਰੂਪ !
ਇਸ ਦਾ ਇੱਕ ਹੋਰ ਕਾਰਨ ਵੀ ਸੀ ਭਗਵਾਨ
ਕਿ ਜਿਸ ਸਬਜ਼ੀ ਵਾਲੇ ਨੰਦੂ ਨੇ
ਨਿਭਾਈ ਸੀ ਤੇਰੀ ਭੂਮਿਕਾ
ਉਹ ਅਕਸਰ ਉਧਾਰ ਦੇ ਦਿੰਦਾ ਸੀ
ਮੈਨੂੰ ਸਬਜ਼ੀ ,
ਤੇ ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਲੈ ਕੇ
ਮੈਂ ਤਾਂ ਬੱਚੇ ਪਾਲਦੀ ਪਈ ਸਾਂ
ਤਾਂ ਹੀ ਤਾਂ ਮੰਨਦੀ ਹਾਂ ਮੈਂ
ਕਿ ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਸੱਚਾ ਹੈ ,
ਪਰ ਇਹ ਵੀ ਸੱਚ ਹੈ ਮੇਰੇ ਰਾਮ ਜੀਓ
ਕਿ ਹੁਣ ਮੇਰੇ ਬੱਚੇ
ਹਸਨ , ਮਹਿਮੂਦ ਤੇ ਨੀਲੋਫਰ
ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਬਹੁਤ ਡਰਦੇ ਨੇ ,
ਉਨਾਂ ਘੀ ਵਾਲੇ ਖਾਲੀ ਡੱਬਿਆਂ ਤੋਂ ਵੀ
ਖੁਰਚ ਖੁਰਚ ਕੇ ਮਿਟਾ ਦਿੱਤੀ ਹੈ ਤੇਰੀ ਤਸਵੀਰ
ਮੁਆਫ ਕਰੀਂ ਆਯੋਧਿਆ - ਨਰੇਸ਼ !
ਬੱਚੇ ਮਾਸੂਮ ਨੇ
ਇੰਨਾ ਦਾ ਕੋਈ ਕਸੂਰ ਨਹੀਂ
ਜਦ ਇੰਨਾ ਲਈ ਬਣ ਗਿਆ ਹੈ ਤੇਰਾ ਚਿਹਰਾ
''ਬੱਚੇ ਚੁੱਕਣ ਵਾਲੇ ਬਾਬੇ '' ਵਰਗਾ ,
ਜਦ ਇੰਨਾਂ ਨੂੰ ਡਰਾਉਣ ਲਈ
ਕਹਿ ਦਿੰਦਾ ਹੈ ਸਬਜ਼ੀ ਵਾਲਾ ਨੰਦੂ ਵੀ ,
'' ਭੱਜ ਜਾਓ ਸਾਲਿਓ...
ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਆਉਂਦੇ ਨੇ ਰਾਮ ਜੀ...!"
ਪ੍ਭੂ ...ਬੱਚੇ ਨੇ ਡਰ ਜਾਂਦੇ ਨੇ ,
ਉਸ ਦਿਨ ਤੋਂ
ਜਦ ਤੇਰੇ ਭਗਤਾਂ ਨੇ ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਲੈ ਕੇ
ਫੂਕ ਦਿੱਤੀ ਸੀ ਸਾਡੀ ਸਾਰੀ ਬਸਤੀ ,
ਉਸ ਦਿਨ ਇੰਨਾ ਲਈ ਪਤੰਗ ਲੈਣ ਗਿਆ
ਇੰਨਾ ਦਾ ਅੱਬਾ ਵੀ ਸਾੜ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਸੀ ਜਿਊਂਦਾ ,
ਉਸ ਦਿਨ ਇੰਨਾਂ ਬੱਚਿਆਂ ਨੇ
ਆਪਣੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਨਾਲ ਵੇਖਿਆ ਸੀ ਸਭ-ਕੁੱਝ ,
ਆਪਣੇ ਕੰਨਾ ਨਾਲ ਸੁਣੇ ਸਨ ਰੋਹਲੇ-ਜਨੂੰਨੀ ਨਾਹਰੇ
ਜਿੰਨਾ ਚ ਫਖਰ ਨਾਲ ਵਿਦਮਾਨ ਸੀ ਤੇਰਾ ਨਾਮ ,
" ਕਸਮ ਰਾਮ ਕੀ ਖਾਤੇ ਹੈਂ...
ਮੰਦਿਰ ਵਹੀਂ ਬਨਾਏਂਗੇ ...!"
ਬਸ ਸੀਤਾ-ਪਤੀ
ਉਸ ਦਿਨ ਤੋਂ ਹੀ ਡਰੇ ਹੋਏ ਨੇ
ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਚੰਦਰੇ ਨਾਸਤਿਕ ...!
ਨਾ ਮਸਜਿਦ ਜਾਂਦੇ ਨੇ ਨਾ ਮੰਦਿਰ ,
ਹੁਣ ਲਕੋ ਕਾਹਦਾ ...
ਸੱਚ -ਸੱਚ ਦੱਸਦੀ ਹਾਂ
ਕਈ ਵਾਰ ਮੈਂ ਵੀ ਝਿੜਕ ਦਿੰਦੀ ਹਾਂ
ਤੁਹਾਡਾ ਨਾਮ ਲੈ ਕੇ ,
ਜਦ ਕਦੇ ਰਾਤ ਨੂੰ
ਇਹ ਦੇਰ ਤੱਕ ਸੌਂਦੇ ਨਹੀਂ ,
" ਸੌਂ ਜਾਓ ਵੇ...
ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਭਗਵਾਨ ਰਾਮ ਆ ਜਾਣ ਗੇ...! "
ਤੇ ਵਿਚਾਰੇ ਸੌਂ ਜਾਂਦੇ ਨੇ ਸੁਸਰੀ ਵਾਂਗ ,
ਆਹ ਆਪਣੀ ਨੀਲੋਫਰ...
ਕਈ ਵਾਰ ਰਾਤ ਨੂੰ ਤ੍ਰਬਕ ਕੇ ਜਾਗ ਪੈਂਦੀ ਹੈ
ਕਿ ਮੈਨੂੰ ਸੁਪਨੇ ਚ ''ਰਾਮ ਜੀ '' ਦਿਖਾਈ ਦਿੱਤੇ ਸੀ ,
ਤੇ ਰੋ ਰੋ ਕੇ ਕਹਿਣ ਲੱਗਦੀ ਹੈ ,
ਅਖਬਾਰ ਚ ਛਪੀ ਉੱਗਰਵਾਦੀਆਂ ਦੀ ਫੋਟੋ ਵਰਗੀ
ਸ਼ਕਲ ਸੀ ਉਨਾਂ ਦੀ !
ਐ ਦਸ਼ਰਥ - ਪੁੱਤਰ
ਦੱਸ ਭਲਾ ਕੀ ਸਮਝਾਵਾਂ ਝੱਲੀ ਨੂੰ ?
ਮੈਂ ਕੱਲੀ-ਕਾਰੀ ਹਾਂ ਤੀਵੀਂ -ਮਾਨੀ
ਚੁੰਨੀਆ ਤੇ ਗੋਟਾ ਕਿਨਾਰੀ ਲਾ ਕੇ
ਮਸਾਂ ਕਮਾਉਂਦੀ ਆਂ ਦੋ ਡੰਗ ਦੀ ਰੋਟੀ ,
ਹੁਣ ਤਾਂ ਉਸ ਦਿਨ ਦਾ ਨੰਦੂ ਵੀ
ਉਧਾਰ ਨਹੀਂ ਦਿੰਦਾ ,
ਮੈਂ ਤਾਂ ਨਪੁੱਤੇ ਬਾਬਰ ਨੂੰ ਵੀ ਨਹੀਂ ਜਾਣਦੀ
ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਉਹਦੇ ਮੂਹਰੇ ਪਿੱਟਾਂ...!
ਬੱਸ ਹੁਣ ਤਾਂ ਤੇਰਾ ਹੀ ਸਹਾਰਾ ਹੈ
ਸੁਣਿਆ ਤੇਰੇ ਰਾਜ ਚ ਸ਼ੇਰ ਤੇ ਬੱਕਰੀ
ਇੱਕੋ ਘਾਟ ਤੇ ਪਾਣੀ ਪੀਂਦੇ ਸੀ ?
..ਤੇ ਜੇ ਮੈਂ ਹੁਣ ਕਿਧਰੇ ਕੰਮ ਤੇ ਜਾਵਾਂ
ਤਾਂ ਪਿੱਛੋਂ ਘਰ ਮੇਰੇ ਕੱਲੇ ਬੱਚਿਆਂ ਦਾ
ਖਿਆਲ ਰੱਖਿਆ ਕਰ ,
ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਡਰਾਇਆ ਨਾ ਕਰ
ਹੱਥ ਚ ਤਿਰਸ਼ੂਲ - ਤਲਵਾਰਾਂ ਫੜ ਕੇ ,
ਗਲਾਂ ਚ ਕੇਸਰੀ ਪੱਲੇ ਪਾ ਕੇ ,
ਬਲਦੀਆਂ ਮਸ਼ਾਲਾਂ ਵਿਖਾ ਕੇ ,
ਸ਼ੇਰ - ਬੱਕਰੀ ਵਾਂਗ
ਇਨਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਬਰਾਬਰ ਰੱਖਿਆ ਕਰ !
ਉਂਝ ਮੈਂ ਕਦ ਕਿਹਾ ਕਿ-
ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਸੱਚਾ ਨਹੀਂ ਹੈ
ਰਘੂਪਤੀ ਰਾਘਵ ਰਾਜਾ ਰਾਮ !
ਪਰ ਜੋ ਮੈਂ ਹੁਣ ਕਿਹਾ ਹੈ -
ਉਹ ਵੀ ਤਾਂ ਸੱਚ ਹੈ ਨਾ ਮਹਾਰਾਜ !

(ਪੁਸਤਕ "ਅਰਥਾਂ ਦਾ ਜੰਗਲ" 'ਚੋਂ)