Saturday, October 8, 2011

आज़ाद देश के गुलाम

-सीमा ग्रेवाल

लाल किले की बुलंदी पर जब तिरंगा परचम लहराता है
हम सब का सीना गर्व से फूला नहीं समाता है
जय हिंद ! के नारे के साथ कहते हैं हम हैं आज़ाद
लेकिन दिल के किसी कोने से फिर भी आती है आवाज़
कि किसी ट्राफ्फिक सिग्नल पर
गाड़ियों के शीशों के बाहर
नन्हे हाथ फैलाए वोह बच्चा
क्या है आज़ाद ?
खेलने कि उम्र में
कूड़े के ढेरों में से
ढून्ढ रहे हैं चाँद हाथ
ज़िन्दगी के साज़
क्या वोह हैं आज़ाद ?
आम आदमी हाथों में
कागजों के पुलंदे लिए
दफ्तरों कि जो ख़ाक छानता है
भ्रष्टाचार जिसका मुँह चिढ़ाता है
ज़मीर जिसका रस्साकशी से
कभी आ पाता न बाज़
क्या वोह है आज़ाद ?
बेरोज़गारी की गुलामी करते
निराशा का पानी भरते
जवानी जो नशे के हाथों
हो रही है बर्बाद
क्या वोह है आज़ाद ?
आज़ाद देश का हर वोह युवक
जो पढ़ लिख कर
परदेसों की मिटटी में
ढूँढ रहा है जवाब
क्या वोह है आज़ाद ?
कंधे से कन्धा मिला कर
चलने वाली औरत
जो आवाज़ से हरदम मिलाती
है अपनी आवाज़
क्या चार आगे बढाने
के वास्ते है आज़ाद?
दिल में दुनिया की एक झलक
पाने को माँ की कोख
में बेचैन बेताब
अजन्मी कन्या
क्या भर सकती है
अपनी मर्ज़ी की परवाज़ ?
यह सब अपनी अपनी गुलामी सहते हैं
अपने हिस्से की अज़ादी को तरसते रहते हैं
आओ इनको इनकी शहादत से बचाएं
फिर मिल कर १५ अगस्त तो क्या
हर दिन अज़ादी का जश्न मनाएं .....

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