Saturday, November 5, 2011

कागज़ की कश्तियाँ

- ज्योति डांग

कागज़ की कश्तियो पे सबकी निगाह होती है |
खुद नदी ही कभी इन की कत्लगाह होती है |

रंग हर रोज़ ही दिखता है सिआसत का नया,
सुर्ख होती है कभी और कभी ये स्याह होती है |

पूछलो गैर से भी हाले दिल ज़रा इक दिन,
जिस्त उस की भी तो अपनी ही तराह होती है |

आ के मंजिल पे ख़तम होती है भटकन सारी,
साथ अपनों का मिले बस ये ही चाह होती है |

हाँ अदावत तो गुनाह है ये हकीकत है मगर,
अब तो उल्फत भी मेरे दोस्त गुनाह होती है |

क्या गिला राह्जनों से करें हम "ज्योति",
कभी रहबरी राहजनी से भी स्याह होती है |

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