Saturday, October 15, 2011

दायित्व बोध (लघुकथा)

- डॉ. अनिल यादव
सुषमा दुल्हन बनकर सजी बैठी थी। उसकी सहेलियाँ बराबर खबर ला रही थीं कि बाहर क्या हो रहा है। सीमा ने बताया कि दरवाजे पर द्वारचार हो रहा है जबकि राधा ने दूल्हे के बारे में बताया, 'सुषमा! तुम तो कह रही थी, तुम्हारा दुल्हा सुंदर नहीं, पर वह तो काफी 'क्यूट' है जी! मुझे तो ईर्ष्या हो रही है तेरी किस्मत से।'
'अरे इसमें ईर्ष्या की क्या बात है तू भी चलजा सुषमा के संग' रमा ने कटाक्ष किया।
'धत्त! मैंने इसलिए थोड़े ही कहा था। मैं काहे को बनी सुषमा की सौतन' मैं तो सुषमा की सहेली ही ठीक रही।' राधा ने मटकते हुए जवाब दिया 'जरा अपनी सुषमा को तो देख। अपने बैच की सबसे सीधी और सरल लड़की। उम्र में भी सबसे कम और मार ले गयी बाजी। हो गयी नंबर वन।' नेहा ने सुषमा की तरफ संकेत करते हुए टिप्पणी की।
'अरे भई, इसमें क्या रखा है' सुषमा की मम्मी बीच में बोल उठीं। 'तुम लोगों को भी यदि सुषमा जैसा वर, उसके जैसा घर चाहिए तो एक काम करो। तुमलोग एक-एक करके सुषमा को छुओ। ऐसा करने से तुमलोगों की शादियाँ भी जल्दी हो जाएंगी और सारे अरमान भी पूरे होंगे।
सुषमा की मम्मी का इतना कहना था कि सुषमा की सारी सहेलियों ने उसको छूना शुरु कर दिया। विमला, आशा, रुपा, नेहा, प्रीति, अलका, नीलू सबने छुआ। राधा भी आगे बढ़ी। परंतु, उसके हाथ सुषमा को छुए, इससे पहले ही उसके कदम रुक गये। राधा के सामने आ गया उसकी माँ का चेहरा जो अभी साल भर पहले विध्वा हो गयी थीं। छोटे भाईयों के नन्हें-नन्हें हाथ जिनपर वह अभी छोटी-छोटी राखियाँ बाँधती है। वह चुपचाप खड़ी रही। उसने आगे बढ़ती सहेलियों को देखा और इससे पहले कि कोई उससे कुछ कहे वह कमरे से बाहर निकल गयी चुपचाप..... माँ के पास, अपने घर।

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